मालदेव और शेरशाह सूरी
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Rav Maldev Rathore |
परन्तु मालदेव ने अपने राठौड़ भाइयो से भी बैर मोल ले लिया जो उसे आगे चल कर भारी पड़ा उसके अलावा भाटियो से और मेवाड़ से और मेड़ता के शासको से जो नाराजगी उठानी पड़ी। ये सब की सब गलतिया आगे चल कर उस पर बहुत भरी पड़ी जिसका खामियाजा उसे अपना राज्ये को खोकर उठाना पड़ा। मालदेव अगर ये सब गलतिया नहीं करता तो आज भारत का इतिहास अलग होता।
जिस समय मालदेव अपनी सर्वोच्चता की और अग्रसर था ठीक उसी समय दिल्ली की राजनीति में उथल पुथल मचा हुवा था। बाबर के स्थापित किये राज्ये को उसके बेटे हुमायूँ ने चौसा और कन्नौज के युद्ध में हर कर पूरी तरह खो दिया था। और इसी के साथ दिल्ली के राज्ये पर शेरशाह सूरी का आधिपत्य हो गया था। परन्तु शेरशाह को अभी भी हुमायूँ से डर था इसलिए उसने एक विश्वसनीय सेना को हुमायूँ के पीछे लगा दिया था। इन सभी मुसीबतो को झेलते हुवे हुमायूँ इधर उधर भटकते हुवे 1541 ई. के प्रारम्भ में भक्कर पहुँचा।
मालदेव और हुमायूँ -
बादशाह हुमायूँ |
उसी समय शेरशाह सूरी एक विशाल सेना लेकर बंगाल में हुवे विद्रोह को दबाने गया गया हुवा था। उस समय शेरशाह की सैन्य शक्ति पूरी तरह चारो और बिखरी हुवी थी। तब उस समय मालदेव ने मौके का तकाजा लगते हुवे हुमायूँ को 20000 घुड़सवारों की सेना देने सन्देश हुमायूँ के पास भिजवाया था। ये बात 1541 ई. की हे जब हुमायूँ भक्कर में डटा हुवा था।
मालदेव ने अपने पड़ोसियों से जित कर अपने राज्ये को विस्तृत किया था। जिसके कारन वीरमदेव, कल्याणमल जैसे उसके पडोसी शत्रु शेरशाह के खेमे में शामिल हो गए थे। तब मालदेव को लगा की क्यों न मुझे भी शेरशाह के दुश्मन हुमायूँ को सैनिक सहायता देकर आने वाले खतरे को टाल लेना चाइये। इस समय मालदेव एक तीर से दो शिकार करना चाहता था। एक तो हुमायूँ के द्वारा शेरशाह को हरा कर उसे ख़तम कर दिया जाये उसके बाद हुमायूँ को सैनिक सहायता देने के बाद उसे अपने अधीन कर लिया जाये। और वैसे भी मालदेव को अपनी सर्वोचता सिद्ध करने के लिए दोनों को हराना तो पड़ता ही क्यों न पहले हुमायूँ और शेरशाह को लड़वा कर उनकी शक्ति को ही कम कर दिया जाये। जिसके कारण उसका काम और आसान हो जाये।
परन्तु ऐसा हो न सका क्यों की हुमायूँ उस समय की कीमत को नहीं पहचान सका और सन्देश का कोई जबाब भी नहीं दिया। बल्कि हुमायूँ उस समय व्यर्थ के कामो में उलझा रहा उसने चोदह वर्षीय हमीदा बानू से निकाह कर लिया जिसके कारण उसके अपना भाई हिन्दाल भी उसका साथ छोड़ कर चला गया उसके और दोनों भाई कामरान और अस्करी पहले से ही उसके खिलाफ थे। अब हिन्दाल भी नाराज हो गया था।
हुमायूँ को उस समय मालदेव से सहायता ले लेनी चाहिए थी। परन्तु वह अब भी सोच रहा था की थट्टा के शासक शाह हुसैन की मदद से गुजरात को जीत लेगा और फिर वह से शक्तिशाली होकर शेरशाह जैसे शक्तिशाली शासक को पराजित कर देगा। हुमायूँ का पहले भी गुजरात के शासक बहादुर शाह के साथ लंबा संघर्ष चला था वह भी वह सफल नहीं हो सका था। तो इस प्रकार हुमायूँ व्यर्थ ही समय ख़राब करता रहा। इस कठिन समय में उसके भाइयो का विरोधी उसके बाद नासिर मिर्जा जैसे समर्थक एक एक करके उसका साथ छोड़ते चले गए और तब शाह हुसैन से भी हुमायूँ को कोई उम्मीद नहीं रही तब उसे मालदेव की याद आई और उसने मालदेव से सहायता लेने की सोची।
मालदेव से सहायता लेने के लिए हुमायूँ भक्कर से मारवाड़ की तरफ जाने की सोची और हुमायूँ वहा से उच्च गया उच्च से जैसलमेर होते हुवे मारवाड़ के फलौदी परगने में पंहुचा। वह से अतल खा को अपना दूत बना कर मालदेव के पास भेजा। मालदेव ने हुमायूँ को ठहरने की व्यवस्था तो कर दी परन्तु सैनिक सहायता देने का कोई आश्वासन दिया। इस बिच हुमायूँ के दूत ने मालदेव के इरादे ठीक नहीं होने की बात कही और इसके साथ ही हुमायूँ का पहले का एक सैनिक जो अब मालदेव की सेवा में था में था उसने एक सन्देश भिजवाया की आप जहा वहा से लोट जाये क्यों की यहाँ पर शेरशाह का एक दूत आया हे वो आप को बंदी बनाने की एवज में बहुत सा धन और शेरशाह के अपने कुछ क्षेत्र देने की बात भी कह रहा है।
हुमायूँ पहले से ही काफी विश्वासघात झेल चूका था इसलिए वह और कठिनाई में नहीं पड़ना चाहता था। इस कारन हुमायूँ ने वहा से चला जाना ही उचित समझा और हुमायूँ वहा से अगस्त 1542 ई. अमरकोट पंहुचा वहा के राणा ने हुमायूँ का आदर सहित आश्रय प्रदान किया और वही रहते अकबर का जन्म हुवा था।
अब बात आती इतिहास की जिसमे कुछ इतिहास करो ने और मुख्य रूप से मुगलकालीन इतिहासकारो ने लिखा हे की मालदेव ने हुमायूँ को धोखा दिया ये बात पूर्णत असत्य है। इसके बहुत से कारण थे। एक तो हुमायूँ का मालदेव के पास जाने समय पूर्णत ग़लत था उसने अपने समय कीमत नहीं जानी और व्यर्थ के कामो में उलझा रहा। मालदेव ने जिस समय सहायता देने का वादा किया था तब शेरशाह बंगाल अभियान पर था उसकी पूरी सेना बिखरी हुवी थी और हुमायूँ उसे हरा सकता था परन्तु बाद में शेरशाह ने बंगाल के विद्रोह को दबा कर अपने आप को एक शक्तिशाली शासक बना लिया था तब मालदेव ने सोचा की अब हुमायूँ को सैनिक सहायता देने से कोई फायदा नहीं क्यों की उसकी हार निश्चित है। मालदेव ने देखा की अब हुमायूँ के पास कोई बड़ी सेना नहीं है उसके सभी वफादार उसे छोड़ कर चले गए है इस कारण अगर वह सेना की सहायता देता है तो भी हुमायूँ की हर तो निश्चित है। क्यों वह शेरशाह से फालतू की दुश्मनी मोल ले। और एक बात और मालदेव एक राजपूत शासक था और राजपूत कभी भी अपने वचन को भंग नहीं करते है। इस कारण मुगलकालीन इतिहासकारो की बातो में दम नहीं लगता है।
By- Preetam Rathore
मालदेव ने अपने पड़ोसियों से जित कर अपने राज्ये को विस्तृत किया था। जिसके कारन वीरमदेव, कल्याणमल जैसे उसके पडोसी शत्रु शेरशाह के खेमे में शामिल हो गए थे। तब मालदेव को लगा की क्यों न मुझे भी शेरशाह के दुश्मन हुमायूँ को सैनिक सहायता देकर आने वाले खतरे को टाल लेना चाइये। इस समय मालदेव एक तीर से दो शिकार करना चाहता था। एक तो हुमायूँ के द्वारा शेरशाह को हरा कर उसे ख़तम कर दिया जाये उसके बाद हुमायूँ को सैनिक सहायता देने के बाद उसे अपने अधीन कर लिया जाये। और वैसे भी मालदेव को अपनी सर्वोचता सिद्ध करने के लिए दोनों को हराना तो पड़ता ही क्यों न पहले हुमायूँ और शेरशाह को लड़वा कर उनकी शक्ति को ही कम कर दिया जाये। जिसके कारण उसका काम और आसान हो जाये।
परन्तु ऐसा हो न सका क्यों की हुमायूँ उस समय की कीमत को नहीं पहचान सका और सन्देश का कोई जबाब भी नहीं दिया। बल्कि हुमायूँ उस समय व्यर्थ के कामो में उलझा रहा उसने चोदह वर्षीय हमीदा बानू से निकाह कर लिया जिसके कारण उसके अपना भाई हिन्दाल भी उसका साथ छोड़ कर चला गया उसके और दोनों भाई कामरान और अस्करी पहले से ही उसके खिलाफ थे। अब हिन्दाल भी नाराज हो गया था।
हुमायूँ को उस समय मालदेव से सहायता ले लेनी चाहिए थी। परन्तु वह अब भी सोच रहा था की थट्टा के शासक शाह हुसैन की मदद से गुजरात को जीत लेगा और फिर वह से शक्तिशाली होकर शेरशाह जैसे शक्तिशाली शासक को पराजित कर देगा। हुमायूँ का पहले भी गुजरात के शासक बहादुर शाह के साथ लंबा संघर्ष चला था वह भी वह सफल नहीं हो सका था। तो इस प्रकार हुमायूँ व्यर्थ ही समय ख़राब करता रहा। इस कठिन समय में उसके भाइयो का विरोधी उसके बाद नासिर मिर्जा जैसे समर्थक एक एक करके उसका साथ छोड़ते चले गए और तब शाह हुसैन से भी हुमायूँ को कोई उम्मीद नहीं रही तब उसे मालदेव की याद आई और उसने मालदेव से सहायता लेने की सोची।
मालदेव से सहायता लेने के लिए हुमायूँ भक्कर से मारवाड़ की तरफ जाने की सोची और हुमायूँ वहा से उच्च गया उच्च से जैसलमेर होते हुवे मारवाड़ के फलौदी परगने में पंहुचा। वह से अतल खा को अपना दूत बना कर मालदेव के पास भेजा। मालदेव ने हुमायूँ को ठहरने की व्यवस्था तो कर दी परन्तु सैनिक सहायता देने का कोई आश्वासन दिया। इस बिच हुमायूँ के दूत ने मालदेव के इरादे ठीक नहीं होने की बात कही और इसके साथ ही हुमायूँ का पहले का एक सैनिक जो अब मालदेव की सेवा में था में था उसने एक सन्देश भिजवाया की आप जहा वहा से लोट जाये क्यों की यहाँ पर शेरशाह का एक दूत आया हे वो आप को बंदी बनाने की एवज में बहुत सा धन और शेरशाह के अपने कुछ क्षेत्र देने की बात भी कह रहा है।
हुमायूँ पहले से ही काफी विश्वासघात झेल चूका था इसलिए वह और कठिनाई में नहीं पड़ना चाहता था। इस कारन हुमायूँ ने वहा से चला जाना ही उचित समझा और हुमायूँ वहा से अगस्त 1542 ई. अमरकोट पंहुचा वहा के राणा ने हुमायूँ का आदर सहित आश्रय प्रदान किया और वही रहते अकबर का जन्म हुवा था।
अब बात आती इतिहास की जिसमे कुछ इतिहास करो ने और मुख्य रूप से मुगलकालीन इतिहासकारो ने लिखा हे की मालदेव ने हुमायूँ को धोखा दिया ये बात पूर्णत असत्य है। इसके बहुत से कारण थे। एक तो हुमायूँ का मालदेव के पास जाने समय पूर्णत ग़लत था उसने अपने समय कीमत नहीं जानी और व्यर्थ के कामो में उलझा रहा। मालदेव ने जिस समय सहायता देने का वादा किया था तब शेरशाह बंगाल अभियान पर था उसकी पूरी सेना बिखरी हुवी थी और हुमायूँ उसे हरा सकता था परन्तु बाद में शेरशाह ने बंगाल के विद्रोह को दबा कर अपने आप को एक शक्तिशाली शासक बना लिया था तब मालदेव ने सोचा की अब हुमायूँ को सैनिक सहायता देने से कोई फायदा नहीं क्यों की उसकी हार निश्चित है। मालदेव ने देखा की अब हुमायूँ के पास कोई बड़ी सेना नहीं है उसके सभी वफादार उसे छोड़ कर चले गए है इस कारण अगर वह सेना की सहायता देता है तो भी हुमायूँ की हर तो निश्चित है। क्यों वह शेरशाह से फालतू की दुश्मनी मोल ले। और एक बात और मालदेव एक राजपूत शासक था और राजपूत कभी भी अपने वचन को भंग नहीं करते है। इस कारण मुगलकालीन इतिहासकारो की बातो में दम नहीं लगता है।
By- Preetam Rathore
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